अंधकार को लहराती हुई
रात गुज़रती है, नंगे
पांव, सुनसान
रास्तों के
मोड़
पर पड़े रहते हैं छितरे हुए
कुछ अतीत के गांव,
भीगे हुए जिल्द
में बंद हैं कुछ
करवट
बदलते
हुए चेहरे, खिड़कियों के -
आड़ से उतरते हैं
कुछ ख़ुश्बुओं
के छांव,
मेघ
कण छू जाती हैं, कांपती
उँगलियों के किनार,
ज़रा सी ख़ुशी
की ख़ातिर
लगा
रहता है पूरी ज़िन्दगी का
दांव, कुछ लगाव होते
हैं समझ के बाहर,
छोड़ना चाहते
नहीं
पश्मीना के आवाज़ पर,
वो पड़े रहते हैं सीने से
से लग कर, उनकी
ख़ुशी है, विदीर्ण
कथरी के
अलाव।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 फ़रवरी, 2021
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कांपती उँगलियों के किनार,
जवाब देंहटाएंज़रा सी ख़ुशी की ख़ातिर लगा रहता है पूरी ज़िन्दगी का दांव,
कुछ लगाव होते हैं समझ के बाहर,
छोड़ना चाहते नहीं पश्मीना के आवाज़ पर...
बहुत सुंदर कविता..साधुवाद 🙏
कृपया इस लिंक का भी अवलोकन करें....
दस दोहे वसंत पर
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत बढ़िया सृजन
जवाब देंहटाएंसादर नमन...
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंसार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
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