13 फ़रवरी, 2021

आकाश पार कहीं - -

सूर्यमुखी सपनों को रहने दो ऊर्ध्वमुख,
नीलाकाश अभी तक सूखा नहीं,
संभावनाओं से है भरा, तुम
छू लो मुझे, फिर उसी
अभिलाष से, कि
मुद्दतों से है
तृषित,
हिय की मरुधरा, उभरने दो किशलय
प्रणय को नर्म माटी से ज़रा ज़रा।
ये सच कि हर एक ख़्वाब की
ता'बीर नहीं होती, फिर
भी तेरी आँखों की
गहराइयों में,
ज़िन्दगी
डूब
के तलाशता है अक्षय प्रेम की विलुप्त
मणि, ये खोज है, कई जन्मों से
कहीं अधिक गहरा, उभरने
दो गुमशुदा इश्क़ को
गहन समुद्र तल
से ज़रा ज़रा।
सभी शै
को है, एक दिन धूसर धुंध में खो जाना,
उस कोहरे के देश में भी, मुझे सिर्फ़
तुझ से है मिलना, तुझ से मिल
के तुझी में ही है खो जाना,
उस आकाशगंगा के
तट पर इक बूंद
की तरह मैं
रहूँगा
तेरी हथेलियों में, निःशब्द ठहरा, - -
उभरने दो विलीन रौशनी को
विस्तृत आकाश पार से
से ज़रा ज़रा।

* *
- - शांतनु सान्याल   

 
 

 

11 टिप्‍पणियां:

  1. गहरे भाव से रससिक्त कविता... बधाई 🙏

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  2.  जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना आज शनिवार 13 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी सादर आमंत्रित हैं आइएगा....धन्यवाद! ,

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  3. उस आकाशगंगा के
    तट पर इक बूंद
    की तरह मैं
    रहूँगा
    तेरी हथेलियों में, निःशब्द ठहरा, - -
    उभरने दो विलीन रौशनी को
    विस्तृत आकाश पार से
    से ज़रा ज़रा।..बहुत सुन्दर, दिल को स्पर्श करती रचना..

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  4. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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  5. तेरी हथेलियों में, निःशब्द ठहरा, - -
    उभरने दो विलीन रौशनी को
    विस्तृत आकाश पार से
    से ज़रा ज़रा।

    वाह!! बहुत ही सुंदर,एक-एक शब्द दिल को छूता हुआ,सादर नमन आपको

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