अपनी मौजूदगी को हर हाल में दर्शाना
है ज़रूरी, भीतर से हम ख़ुश रहें या
न रहें, बाहर से ख़ुशी दिखाना
है ज़रूरी, पुरानी किताबों
की तरह कई रिश्ते
यूँ ही पड़े रहते
हैं शीशे के
ताक़ों में,
पढ़ें
या न पढ़ें, लेकिन जिल्द पे लिखे उनके
नाम बताना है ज़रूरी, भीतर से हम
ख़ुश रहें या न रहें, बाहर से
ख़ुशी दिखाना है ज़रूरी।
एक वजूद के अंदर न
जाने कितने वजूद
को सजा रखते
हैं लोग,
एक
अक्स उतार के, दूसरा बिम्ब उसी पल
उभार लेते हैं लोग, समझ में कुछ
आए या न आए, कोई बात
नहीं, हामी की ज़बां से,
सब कुछ, यूँ ही
समझाना है
ज़रूरी,
भीतर से हम ख़ुश रहें या न रहें, बाहर से
ख़ुशी दिखाना है ज़रूरी। मंदिर के
अंदर हो या मंदिर के बाहर बैठे
वो सभी कालग्रसित जीर्ण
चेहरों से, किसे क्या
लेना देना, बस
अपनी सभी
मन्नतों
का
वास्ता, नीलाभ कांच की खिड़कियों को
गिराए, घर से मंदिर तक अक्सर
आना जाना है ज़रूरी, भीतर
से हम ख़ुश रहें या न
रहें, बाहर से ख़ुशी
दिखाना है -
ज़रूरी।
कुछ
लोगों की नज़र पहुंचती है, दिलो दिमाग़
से कहीं आगे, अंदर के दलदल में
उतर कर कौन देखेगा, फ्रेम
में तस्वीर की दिव्यता
तो उभरे, लिहाज़ा
दाढ़ी के वन
को दूर
तक बढ़ाना है ज़रूरी, नीलाभ कांच की - -
खिड़कियों को गिराए, घर से मंदिर
तक अक्सर आना जाना है
ज़रूरी, अपनी मौजूदगी
को हर हाल में
दर्शाना है
ज़रूरी।
* *
- - शांतनु सान्याल
16 फ़रवरी, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 16 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंभव्य प्रदर्शन..भौतिकवाद पर प्रहार करती रचना..
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबिलकुल जरूरी अहि अपने एहसास को जगाये रखना ... अपने एहसास को सबके सामने रखना ...
जवाब देंहटाएंअच्छी अभ्जिव्यक्ति ...
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंदिलो दिमाग़
जवाब देंहटाएंसे कहीं आगे, अंदर के दलदल में
उतर कर कौन देखेगा, फ्रेम
में तस्वीर की दिव्यता
तो उभरे, लिहाज़ा
दाढ़ी के वन
को दूर
तक बढ़ाना है ज़रूरी, नीलाभ कांच की - -
खिड़कियों को गिराए, घर से मंदिर
तक अक्सर आना जाना है
ज़रूरी, अपनी मौजूदगी
को हर हाल में
दर्शाना है
ज़रूरी।..बहुत ही दार्शनिक अंदाज़..आज के दिखावे पर प्रहार करती रचना..
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआत्म-प्रदर्शनइस सीमा तक हावी हो गया है कि व्यक्तित्व की अस्लियत सामने आ नहीं पाती.
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं