10 फ़रवरी, 2021

देह से लिपटे बेल - -

उजालों में लोग पढ़ते हैं दूसरों के
आविष्कार, अंदर की कहानियों
को उघाड़ता है अन्धकार,
मुख़बिर की तरह
पीछा करती हैं
परछाइयां,
और हम
भागते हैं, माया के पीछे लगातार,
लम्बे, रहस्यमय पथ का हूँ,
एकाकी पथिक, मुझे
हर हाल में पहुंचना
है, अपने घर
द्वार,
इस खोह के अंदर हैं अदृश्य अनेक
रोशनदान, कौन किसे छलेगा,
अंतरतम की आँखें हज़ार,
देह से उठ कर सभी
चाहत हैं, धुएं के
बादल,
हर एक गिरेबां पे है, उसकी नज़र
बारम्बार, किसने देखा है,
दिव्य अदालत की
सीढ़ियां, सब
कुछ है
खुला हुआ, यहीं है न्याय का दरबार,
उस गुप्त प्रणय पाश में हैं कोई
अदृश्य कांटा, उतना ही
धंसता जाए जितना
निकालें हर बार,
सभी हो जाएं
बंदी, देह
से लिपटे जब मायावी बेल, उतर - -
जाए सब गेरुआपन, जब छू
जाए सिक्त
किनार।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

 
 
 
 




 

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति शांतनु जी, ऐसी अभिव्यक्ति जिसका एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ने, गुनने तथा आत्मसात् करने योग्य है ।

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  2. खुला हुआ, यहीं है न्याय का दरबार,
    उस गुप्त प्रणय पाश में हैं कोई..

    बहुत खूब

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  3. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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