04 फ़रवरी, 2021

ये शेष वसंत नहीं - -

कुछ अबीर गुलाल अभी तक हैं
मेरे एहसासों में, इक
वासंती स्पर्श
उभरती है,
प्रायः
मेरी सांसों में, इस राह से गुज़रे
हैं, न जाने कितने ही मधुमास,
कुछ आज भी हैं खड़े
एकाकी, मोहक
आभासों में,
महुआ -
पलाश अरण्य के पार उस सूखी
नदी में, अनेक सजल स्रोत
हैं दफ़न उन रेत के
प्रासादों में,
पृष्ठों
का पलटना है अशेष, ये कोई
शेष वसंत नहीं, मोम
पिघल कर धुआं
हुआ, ज्योत
रही  मेरी
यादों
में, पृथ्वी, आकाश, अंतरिक्ष
सभी हो जाएं चिर विलीन,
फिर भी ज़िन्दगी
उभरती है
पुनः
फूल भरे शाख़ों में, क्षितिज
पार कहीं ठहरा हुआ है
कोई देवदूत -
उजाला,
जाने
कौन रात ढले रख गया - - -
मरहम, दर्द के
सुराख़ों
में।

* *
- - शांतनु सान्याल  

 

 
 

 

15 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 05-02-2021) को
    "समय भूमिका लिखता है ख़ुद," (चर्चा अंक- 3968)
    पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद.


    "मीना भारद्वाज"

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  2. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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  3. निशब्द!
    हृदय स्पर्शी मनैहारी चित्रण।।
    एक अद्भुत तिलिस्म।

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  4. देवदूत -
    उजाला फैलाने वाला,दर्द के सुराख़ों में मरहम
    रात ढ़ले रख जाने वाला सदैव मिले
    उम्दा रचना...
    ,

    जवाब देंहटाएं
  5. निशब्द करती भावपूर्ण रचना ।
    अशेष शुभकामनाएं सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं

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