भूमिगत जल स्रोत की गहराई किसे पता,
वक़्त छीन लेता है चेहरे का ठिकाना,
दस्तक भी धीरे धीरे हो जाते
हैं निःशब्द, किसी और
के मार्फ़त, ओंठों
पर रहता
है तब
मुस्कराहटों का आना जाना, वक़्त छीन
लेता है चेहरे का ठिकाना। अप्रेषित
ख़तों में कहीं रहती है धुंधली सी
याद की परछाई, जिसके
ठीक नीचे से हो कर
बहती है, कोई
शब्दों की
नदी !
अकसर हम तलाशते हैं, जिसके अंदर में
ज़िन्दगी का ख़ज़ाना, वक़्त छीन
लेता है चेहरे का ठिकाना।
दरअसल, कोई भी
नहीं निभाता
है अपना
वादा,
सिर्फ़ अदृश्य कच्चे धागों के मार्फ़त होता
है सामयिक इरादा, समय जिसे बना
जाता है एक दिन, खण्डहर कोई
पुराना, वक़्त छीन लेता है
चेहरे का ठिकाना।
उलझे लटों
में हैं कुछ
चांदी
की लकीरें, झुर्रियों में कहीं खोजती है - -
ज़िन्दगी, गुज़रे दिनों की तस्वीरें,
इस रास्ते से हो कर, उस
गली के अंदर, बहोत
कुछ बदल
जाता
है, नाम की तख़्ती से उतर जाते हैं, धीरे
धीरे सभी अक्षर, C/O में कहीं
झूलता रहता है अस्थायी
आस्ताना, वक़्त
छीन लेता
है चेहरे
का
ठिकाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
17 फ़रवरी, 2021
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दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति , ये लिखने का अंदाज़ कुछ नया है क्या इस विधा का कुछ विशेष नाम है ? ये उल्टा पिरामिड टाइप लग रहा ।
जवाब देंहटाएंदरअसल इस तरह से त्रिभुज आकृति में कविता लिखना मुझे अच्छा लगता है बस, इस तरह के लेखन शैली के बारे में कोई जानकारी नहीं है आदरणीया संगीता जी, असंख्य धन्यवाद मंतव्य के लिए - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर सारगर्भित सृजन..
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंदिल की तलहटी में उतर गई यह अभिव्यक्ति शांतनु जी । अब अधिक क्या कहूं ?
जवाब देंहटाएंआपके मंतव्य भावनाओं को जैसे पुरस्कृत किये जाते हैं - - असंख्य धन्यवाद नमन सह।
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