15 फ़रवरी, 2021

नव अभिज्ञान - -

उड़ चले हैं सुनहरी पंखों में कुछ सुखद
दिनों के पृष्ठ, स्मृतियों में कहीं
न कहीं, हम तुम अभी तक
हैं विद्यमान, कुछ
धुंधले दिन
कुछ
उजली रातें, ख़ामोश लम्हों के ढेर सारी
अनकही बातें, सुरमई शामों की
वो अधूरी मुलाक़ातें, श्वेत -
श्याम रंगों के कुछ
छुटमुट से वो
अभिमान,
स्मृतियों में कहीं न कहीं, हम तुम अभी
तक हैं विद्यमान। सागौन वन की
तरह, जीवन चक्र घूमता है
हरित तन से हो कर
पर्णविहीन पल
तक, दृश्यों
की वही,
पुनरावृति, बिहान से लेकर गोधूलि पलों
तक, यथारीति जीवन का अभियान,
स्मृतियों में कहीं न कहीं, हम
तुम अभी तक हैं पूर्ववत
विद्यमान। कहने
को बदलते
रहे हैं
मौसम के रंग, फिर भी जीवन झूलता है
उसी हिंडोले पर बार बार, कभी शून्य
से हम छूना चाहते हैं पृथ्वी को
और कभी ज़मीं से दिल
चाहता है छूना
नीलाभ
आसमान, स्मृतियों में कहीं न कहीं,- -
हम तुम अभी तक हैं, नए रूप में
विद्यमान, झरते पत्तों के
ठीक पीछे होते हैं नए
कोपलों के अदृश्य
अभिज्ञान।

* *
- - शांतनु सान्याल


 
 

12 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-2-21) को "माता का करता हूँ वन्दन"(चर्चा अंक-3979) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. आपकी काव्याभिव्यक्ति बहुत उच्च स्तर की होती है शांतनु जी । उसे आत्मसात् करने के लिए भी एक कवि का ही हृदय चाहिए ।

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  3. स्मृतियों में बहुत कुछ शेष रहता है । सुंदर अभिव्यक्ति

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    1. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - बहुत दिनों के बाद आदरणीया आपकी उपस्थिति मन को हर्ष प्रदान करती है - - नमन सह।

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