22 फ़रवरी, 2021

अंतहीन बसंत - -

हिमयुग का अंत हो न हो, बसंत दिलों
में रहे हमेशा बरक़रार, न जाने क्या
ढूंढती हैं, नीलाकाश की ओर,
चिनार की वो टहनियां
नोकदार, शीत -
निद्रा के
भंग होते ही उभर आते हैं अनगिनत
झिलमिलाते हुए, अवशिष्ट
तुषार कणिका, शायद
उन्हें है किसी
अलौकिक
पलों
का इंतज़ार, गुज़रे दिनों के सुखकर -
घरौंदों से उड़ चुके हैं, प्रवासी
पक्षियों के चूजे, तिनकों
में कहीं उलझे पड़े हैं
आत्मीय क्षणों
के उपहार,
सुबह
की नीमगर्म धूप में दिल चाहता है
पुनः पढ़ना तुम्हारी निगाहों में
प्रथम प्रणय की प्रतिश्रुति,
फूल खिले न खिले,
पत्ते हिले न
हिले, फिर
भी
इसी पल है अंतहीन बसंत, क्योंकि
मेरी ज़िन्दगी से तुम कभी दूर
गए ही नहीं, मुझ में घुल
कर, तुम हो चुके हो
मुद्दतों पहले ही
एकाकार,
हिमयुग का अंत हो न हो, बसंत
दिलों में रहे हमेशा
बरक़रार।
* *
- - शांतनु सान्याल    

 
 
 




20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 22 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. कहीं ऐसा ना हो कि बसंत सिर्फ यादों में रह जाए

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  3. वसंत का सबको इंतज़ार रहता है, वह आता है बुझे दिलों में नया जोश भरने

    बहुत सुन्दर

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