09 फ़रवरी, 2021

प्रतीक्षारत बसंत - -

न रोक मुझे, इन मोह के जालों
में, धुंधलकों में कहीं है वो
गंतव्य बिंदु, जिसे
अक्सर देखा
किया
ख़्यालों में, पंक्तिबद्ध हैं रखे - -
हुए सप्तरंगी प्याले,
किसे ख़बर क्या
रखा है इन
प्यालों में,
कुछ
व्यथा बने विषहर समय के संग,
कुछ सुख उलझे रहे अकारण
सवालों में, रात गुज़रती
है जब, उन आँखों
से हो कर, सुकूं
मिलता है
रूह को
तब सुबह के उजालों  में, अदृश्य
छाया सा ढक लेता है
देह मेरा, कोई
जज़्ब किए
जाता है
लम्हा
लम्हा मेरा वजूद, टुकड़े टुकड़े - -
अंतरालों में, कभी जीवन
तेरे आंच में है, जलता
हुआ शलभ, कभी
तू लगे ठहरा
हुआ इक
बसंत
वक़्त के अस्थिर डालों में, - - -
धुंधलकों में कहीं है वो
गंतव्य बिंदु, जिसे
अक्सर देखा
किया
ख़्यालों में।

* *
- - शांतनु सान्याल

12 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ
    व्यथा बने विषहर समय के संग,
    कुछ सुख उलझे रहे अकारण
    सवालों में, रात गुज़रती
    है जब, उन आँखों
    से हो कर, सुकूं
    मिलता है
    रूह को
    तब सुबह के उजालों में, जीवन चक्र का बहुत सुन्दर विश्लेषण..प्यारी एवं मन को छूती रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें शांतनु जी..

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-02-2021) को "बढ़ो प्रणय की राह"  (चर्चा अंक- 3973)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज मंगलवार 09 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. वाह!लाजवाब सृजन आदरणीय सर।
    सादर

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