01 फ़रवरी, 2021

निर्वासित सच - -

विवस्त्र खड़ा रहता है तारों से
भरे आकाश के नीचे, वो
सच जो निर्वासित है,
अपने ही घर में,
कुछ अतीत
के पृष्ठ
समाप्ति की तारीख़ पार कर
गए, बिखरे पड़े हैं, कई
स्मृति पंख पुरातन
शहर में, इस
रात के
सीने में उभरते हैं, असंख्य - -
नग्न परछाइयां, बुझा
दिए जाते हैं, कितने
ही शमा अंतिम
पहर में,
अनुच्चारित शब्द, अवशिष्ट
मोम की तरह पड़ा रहता
है मेज पर, दूर तक
कोई नहीं होता
छायापथ की
डगर में,
चाँदनी का कफ़न ओढ़े सो - -
जाती हैं, धूसर सच्चाइयां,
सिर्फ़ जागे होते हैं
रंगीन ख़्वाब,
कोहरे से
ढके
रहगुज़र में, न जाने कितनी बार,
यूँ ही मर के जी उठा है
जिस्म मेरा, कहने
को दिखता हूँ,
बहुत ही
ख़ूबसूरत महफ़िल की नज़र में,
वो सच जो निर्वासित है,
अपने ही घर में।

* *
- - शांतनु सान्याल


 

16 टिप्‍पणियां:

  1. रहगुज़र में, न जाने कितनी बार,
    यूँ ही मर के जी उठा है
    जिस्म मेरा, कहने
    को दिखता हूँ,
    बहुत ही
    ख़ूबसूरत महफ़िल की नज़र में,
    वो सच जो निर्वासित है,
    अपने ही घर में।

    वाह! क्या बात।
    उत्कृष्ट।

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  2. चाँदनी का कफ़न ओढ़े सो - -
    जाती हैं, धूसर सच्चाइयां,
    सिर्फ़ जागे होते हैं
    रंगीन ख़्वाब,
    कोहरे से
    ढके
    रहगुज़र में..सुन्दर मनोभावों की अभिव्यक्ति..

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  3. सच को ही गुजरना पड़ता है हर बार अग्नि परीक्षाओं से

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  4. "दूर तक
    कोई नहीं होता
    छायापथ की
    डगर में,
    चाँदनी का कफ़न ओढ़े सो - -
    जाती हैं, धूसर सच्चाइयां,
    सिर्फ़ जागे होते हैं
    रंगीन ख़्वाब,
    कोहरे से
    ढके"
    --
    बहुत सुन्दर रचना।

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  5. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-2-21) को "शाखाओं पर लदे सुमन हैं" (चर्चा अंक 3965) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा


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  6. ज़िंदगी की उहापोह में बहुत कुछ समेटे एक वो सच जो निर्वासित है अपने ही घर में...बहुत ही हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति आदरणीय सर।
    सादर

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