31 जनवरी, 2021

उम्मीद के मेहराब - -

वो सभी शामे चिराग़, भटके
हुए रहनुमा निकले, बुझ
गए उम्मीद से पहले,
बड़े ही बदगुमां
निकले,
ज़ीस्त से कहीं लम्बे थे, ज़ेरे
नफ़स चाहतों के सुरंग,
परछाइयों की तरह
अंधेरे में सभी
नाआश्ना
निकले,
यूँ तो कई बार, दौड़ कर - -
दहलीज़ से लौटी है
ज़िन्दगी, चेहरा
कहता रहा
बारहा,
अक्स लेकिन बेसदा निकले,
सभी बाज़गश्त वादियों
से टकरा कर बिखरते
गए, तन्हा रहा
मुसाफ़िर,
उम्र
भर के अहद बेवफ़ा निकले, -
मन्नतों के मेहराब में,
इक गुलाब हमने
भी है रक्खा,
उजालों
का
पता न मिला, उस गली से
कई दफ़ा निकले।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

 
 
 
 

21 टिप्‍पणियां:

  1. मन्नतों के मेहराब में,
    इक गुलाब हमने
    भी है रक्खा,
    उजालों
    का
    पता न मिला, उस गली से
    कई दफ़ा निकले।
    बहुत खूब !! हृदयस्पर्शी सृजन ।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज रविवार 31 जनवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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  4. बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय सर।
    सादर

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  5. उम्दा ग़ज़ल! सभी शेर एक से बढ़कर एक ।
    बेहतरीन सृजन।

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  6. मन्नतों के मेहराब में,
    इक गुलाब हमने
    भी है रक्खा,
    उजालों
    का

    वाह!!!
    सुंदर रचना 🌹🙏🌹

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