16 जनवरी, 2021

परख हीनता - -

उन नितांत संधि पलों में, हम बहुत
कुछ रख आते हैं बंधक, अदृश्य
भस्म लपेटे सारे अंग में,
निरंतर भटकते हैं
किसी मृग -
सार की
तरह
बदहवास, आईना क्रमशः उतार देता
है, परत दर परत जिस्म से सभी  
दिखावटी रंजक, उन नितांत
संधि पलों में, हम बहुत
कुछ रख आते हैं
बंधक। वो
चेहरा
जो कभी तितलियों के स्पर्श से सहम
जाता रहा, वही आज मुरझाया
सा नज़र आया, दरअसल
समय से बड़ा मौसम
कोई दूसरा नहीं,
जतन चाहे
कोई
कितना भी कर ले, जंग लगे अस्तित्व
को खींच नहीं पाता, आंख का
चुम्बक, दर्पण क्रमशः
उतार देता है, धीरे
धीरे, जिस्म
से सभी
दिखावटी रंजक। उन गहरे कृत्रिम रंगों
के मध्य उभरते हैं, वास्तविकता
के लकीर, हमारे पास कुछ
नहीं बचता समझौते
के अतिरिक्त,
हम छोड़
देते हैं
उन संधि पलों में, सभी शीशीबंद जुगनू,
उत्तरोत्तर प्लावित द्वीप में, रात
ढले तक रहती है, कोई मायावी
चमक, फिर भी जंग लगे
अस्तित्व को खींच
नहीं पाता, आंख
का चुम्बक,
अंतर का
मोती
फेंक, हम उठाते हैं, धूसर पथ के अभ्रक।

* *
- - शांतनु सान्याल 

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 17 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (17-01-2021) को   "सीधी करता मार जो, वो होता है वीर"  (चर्चा अंक-3949)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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