उन नितांत संधि पलों में, हम बहुत
कुछ रख आते हैं बंधक, अदृश्य
भस्म लपेटे सारे अंग में,
निरंतर भटकते हैं
किसी मृग -
सार की
तरह
बदहवास, आईना क्रमशः उतार देता
है, परत दर परत जिस्म से सभी
दिखावटी रंजक, उन नितांत
संधि पलों में, हम बहुत
कुछ रख आते हैं
बंधक। वो
चेहरा
जो कभी तितलियों के स्पर्श से सहम
जाता रहा, वही आज मुरझाया
सा नज़र आया, दरअसल
समय से बड़ा मौसम
कोई दूसरा नहीं,
जतन चाहे
कोई
कितना भी कर ले, जंग लगे अस्तित्व
को खींच नहीं पाता, आंख का
चुम्बक, दर्पण क्रमशः
उतार देता है, धीरे
धीरे, जिस्म
से सभी
दिखावटी रंजक। उन गहरे कृत्रिम रंगों
के मध्य उभरते हैं, वास्तविकता
के लकीर, हमारे पास कुछ
नहीं बचता समझौते
के अतिरिक्त,
हम छोड़
देते हैं
उन संधि पलों में, सभी शीशीबंद जुगनू,
उत्तरोत्तर प्लावित द्वीप में, रात
ढले तक रहती है, कोई मायावी
चमक, फिर भी जंग लगे
अस्तित्व को खींच
नहीं पाता, आंख
का चुम्बक,
अंतर का
मोती
फेंक, हम उठाते हैं, धूसर पथ के अभ्रक।
* *
- - शांतनु सान्याल
16 जनवरी, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 17 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (17-01-2021) को "सीधी करता मार जो, वो होता है वीर" (चर्चा अंक-3949) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत अच्छी सुगठित रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएं