वही बेरंग दरो दीवार, बालकनी के
रेलिंग से झूलते हुए पुराने
रंग बिरंगे कपड़ों का
संसार, वही जंग
लगी कील
पर है
लटकता हुआ तिथि, नक्षत्र, मुहूर्तों
का क्रमबद्ध व्यापार। हर मोड़
पर हैं, न जाने कितने ही
अगोचर मसीहाई
की दुकान,
किस
तरह से बचाएं, इन अदृश्य फंदों से
अपनी जान, राजपथ के दोनों
तरफ बैठे हैं, लोग लेकर
पिंजरे में बंद मिट्ठू,
सभी हैं, लूटने
की कला
में एक
से बढ़ कर एक महा विद्वान। एक
से छूटो, तो दूसरा होता है पहले
से मौजूद, इन अंधी गलियों
में मुखौटों को उतारना
नहीं आसां, न जाने
कितने जमूरे
होते हैं
इन
तमाशबीनों में शामिल, ये राख की
तावीज़ को, ख़ुदा के नाम पर
जाते हैं बेच, इन फ़रेबी
रहनुमाओं को, इन
भीड़ भरी राहों से
यूँ ही निकाल
फेंकना
नहीं
आसां, इन अंधी गलियों में मुखौटों
को उतारना नहीं आसां।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 जनवरी, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसब कुछ वही पुराना सा है।
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंमुखौटों का ही बोलबाला है..। वास्तव में बहुत अच्छी कविता है। साधुवाद 💐🙏💐
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंएक
जवाब देंहटाएंसे छूटो, तो दूसरा होता है पहले
से मौजूद, इन अंधी गलियों
में मुखौटों को उतारना
नहीं आसां, न जाने
कितने जमूरे
होते हैं ..हर तरफ़ मुखौटों की भरमार है ..सुंदर सराहनीय कृति..
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएं