06 जनवरी, 2021

दिवास्वप्न के झोली वाले - -

वही बेरंग दरो दीवार, बालकनी के
रेलिंग से झूलते हुए पुराने
रंग बिरंगे कपड़ों का
संसार, वही जंग
लगी कील
पर है
लटकता हुआ तिथि, नक्षत्र, मुहूर्तों
का क्रमबद्ध व्यापार। हर मोड़
पर हैं, न जाने कितने ही
अगोचर मसीहाई
की दुकान,
किस
तरह से बचाएं, इन अदृश्य फंदों से
अपनी जान, राजपथ के दोनों
तरफ बैठे हैं, लोग लेकर
पिंजरे में बंद मिट्ठू,
सभी हैं, लूटने
की कला
में एक
से बढ़ कर एक महा विद्वान। एक
से छूटो, तो दूसरा होता है पहले
से मौजूद, इन अंधी गलियों
में मुखौटों को उतारना
नहीं आसां, न जाने
कितने जमूरे
होते हैं
इन
तमाशबीनों में शामिल, ये राख की
तावीज़ को, ख़ुदा के नाम पर
जाते हैं बेच, इन फ़रेबी
रहनुमाओं को, इन
भीड़ भरी राहों से
यूँ ही निकाल
फेंकना
नहीं
आसां, इन अंधी गलियों में मुखौटों
को उतारना नहीं आसां।

* *
- - शांतनु सान्याल
     
 

  

8 टिप्‍पणियां:

  1. मुखौटों का ही बोलबाला है..। वास्तव में बहुत अच्छी कविता है। साधुवाद 💐🙏💐

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  2. एक
    से छूटो, तो दूसरा होता है पहले
    से मौजूद, इन अंधी गलियों
    में मुखौटों को उतारना
    नहीं आसां, न जाने
    कितने जमूरे
    होते हैं ..हर तरफ़ मुखौटों की भरमार है ..सुंदर सराहनीय कृति..

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