08 जनवरी, 2021

ख़ुश्बू के निशां नहीं मिलते - -

कंक्रीट के जंगल में, राहतों के आसमां नहीं मिलते,
अनचाहे संधियों में, ज़िन्दगी के निशां नहीं मिलते।

इस शहर में यूँ तो, हर सिम्त हैं, इमारतों के अंबार,
हर शै है मयस्सर, ताहम स्थायी मकां नहीं मिलते।

इक गंधहीन रुमाल, अपनी जेब में लिए फिरता हूँ,
जो खो गए भीड़ में, वो ख़ुश्बू के निशां नहीं मिलते।

छोड़ कर इस माया नगर को, जाएं भी तो कहाँ जाएं,
जो झुंड में मिला लें वो दिलवाले कारवां नहीं मिलते।

हर बार आख़री पहर में आ कर, रात जाती है बिखर,
हर रात की तरह ख़ामोशी को कोई ज़बां नहीं मिलते।

उम्र भर जो बांधे रखे, ख़्वाहिशों की ख़ानाबदोशी को,
अफ़सोस कि वो इत्मीनान वाले घर यहाँ नहीं मिलते।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 08 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. उम्र भर जो बांधे रखे, ख़्वाहिशों की ख़ानाबदोशी को,
    अफ़सोस कि वो इत्मीनान वाले घर यहाँ नहीं मिलते।..सच कहा है आपने..सुन्दर रचना..

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