कहते हैं कि उस के पास है, कोई कल्प तरु,
उस के साए में हम कुछ देर ठहर के देखेंगे।
इक बार जो देख ले, दोनों जहाँ से तर जाए,
समुद्र से भी गहन, आँखों में उतर के देखेंगे।
उसके हाथों से बहते हैं, दुआओं के जलधार,
विस्तीर्ण बबूल वन से, हम गुज़र के देखेंगे।
ये सच है, कि मंज़िल का पता नहीं जानते,
अकेले ही सही, अनंत सफ़र कर के देखेंगे।
कब तक आईना, यूँ चुराएगा हम से नज़र,
हम अक्स अपना फिर बन संवर के देखेंगे।
अंदर तक हैं सब्ज़, क़दीम दरख़्त की शाख़ें,
मंदिर की सीढ़ियों में यूँ ही बिखर के देखेंगे।
वक़्त जितना भी उभारे, माथे की लकीरों को,
हम उतना ही टूट फूट कर, निखर के देखेंगे।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 जनवरी, 2021
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कब तक आईना, यूँ चुराएगा हम से नज़र,
जवाब देंहटाएंहम अक्स अपना फिर बन संवर के देखेंगे..नायाब पंक्तियाँ..आशा का संदेश देती सुंदर रचना..
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर |
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
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