कुछ उपेक्षित मलिन प्रदेश, हमेशा की
तरह रहते हैं ओझल, दीवार उठा
दिए जाते हैं रातों रात, नाले
के दोनों किनारे, लेकिन
सत्य को छुपाना
इतना भी
सहज
नहीं, सभी सीमाएं तोड़ जाते हैं दुर्गन्ध
के कोलाहल, कुछ उपेक्षित मलिन
प्रदेश, हमेशा की तरह, रहते हैं
ओझल। हर बात पर जो
लोग दिया करते हैं
अभिव्यक्ति की
दुहाई, वक़्त
लगता
नहीं उन्हें, लोगों की आवाज़ कुचलने
के लिए, साधु का स्वांग रचने से,
हर कोई माया मुक्त जोगी
नहीं बन जाता, एक
दीर्घ साधना
चाहिए
स्वयं
को महा राजर्षि के रूप में बदलने के -
लिए, वक़्त लगता नहीं उन्हें,
बेरहमी से लोगों की ज़बां
कुचलने के लिए।
दिग्विजय की
चाह में
छूट
जाता है, अंतरतम का कठिन प्रदेश,
दुनिया की नज़र में वो चाहे
बन जाए विश्व पुरोधा,
अवगाहन के नग्न
क्षणों में वो ख़ुद
को पाता है
आधा,
इतिहास के पृष्ठों में नहीं होता उसका
कोई उल्लेख, माथे पर प्रश्नचिन्ह
लिए वो भटकता है अतृप्त
आत्मा की तरह जन्म
जन्मांतर तक, न
कोई आरम्भ
न कोई
शेष,
दिग्विजय की चाह में छूट जाता है, -
अंतरतम का कठिन
प्रदेश।
* *
- - शांतनु सान्याल
19 जनवरी, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 19 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसच जिसने अपने अंतर्मन की थाह पा ली उसने जग जीत लिया, जीवन सफल बना लिया समझो
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह! लाजवाब सृजन सर।
जवाब देंहटाएंबस वाह!
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंहर बात पर जो
जवाब देंहटाएंलोग दिया करते हैं
अभिव्यक्ति की
दुहाई, वक़्त
लगता
नहीं उन्हें, लोगों की आवाज़ कुचलने
के लिए,
सुन्दर सृजन....
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं