16 मई, 2024

अर्पण - -

साँझ और बिहान के मध्य है आलोकित उत्थान -
पतन, अमावस हो या चाँदनी रात, शुक्र ग्रह
की रहती है हर सांस को तलाश,
ईशान कोण में जब कभी
उभरते हैं श्यामवर्णी
मेघ दल, कुछ
पल के
लिए
ही सही बुझता सा लगे जीवन दहन, साँझ और बिहान के मध्य है आलोकित उत्थान -
पतन । शब्दों के परे रहती हैं कुछ
अनुभूतियां, एक अनुरागी
छुअन जो क्रमशः 
जीवाश्म को 
लौटा जाते 
हैं 
विलुप्त स्पंदन, शताब्दियों से थमा हुआ वक़्त पुनः
हो जाता है गतिशील, मृत सीप के सीने में
रहता है झिलमिल प्रणय मोती, टूटे हुए
खोल से झाँकती सी है एक अद्भुत 
सप्तरंगी किरण, उन अनमोल 
पलों की अंजलि मैं तुम्हें
करना चाहता हूँ पूर्ण
अर्पण, साँझ और 
बिहान के 
मध्य है 
आलोकित उत्थान -पतन ।।
- - शांतनु सान्याल

10 मई, 2024

विखंडन - -

प्रकाश स्तम्भ की तरह अपनी जगह अनंत

काल से ठहरा हुआ रहता है एकाकी
प्रणय, लवणीय हवाओं से ख़ुद
का अपक्षरण करता हुआ,
क्रमशः देह प्राण का
अगोचर विखंडन,
चाँदनी रात हो
या मेघाच्छन्न
कालरात्रि,
असमाप्त प्रतीक्षा में अंतर्निहित रहता है एक
अपरिभाषित आनंद, क्षितिज और सैकत
के मध्य कभी नहीं टूटता अदृश्य मेल
बंधन, क्रमशः देह प्राण का अगोचर
विखंडन । अनगिनत नौकाएं
लौट आती हैं अपने
गंतव्यों की ओर,
झिलमिलाते
बंदरगाहों
में रात
भर
चलता रहता है क्रय विक्रय, निःसंग प्रकाश - -
स्तम्भ सुनता रहता लहरों का मौन क्रंदन,
फिर भी वो अनिद्रित आंखों से करता
है नव बिहान का अभिनंदन, क्रमशः
देह प्राण का अगोचर
विखंडन ।
- - शांतनु सान्याल

04 मई, 2024

द्विधा - -

सिर्फ़ निष्पलक देखते रहे, शब्दों के अमलतास

अपने आप मौन झर से गए, बहुत कुछ कहा
था उसने नयन कोण से, बरसने से पहले
कुछ जल बिंदु पलकों के तीर ठहर
से गए, न जाने क्या बात थी
हृदय तल की गहनता में,
कुछ कोंपलें निकले
ज़रूर लेकिन
अल्पायु में
मर से
गए, शब्दों के अमलतास अपने आप मौन झर से
गए । कोई ढूंढता रहा रेत की नदी में विलुप्त
जल स्रोत का पता, हवाएं मिटा देती हैं
सभी पदचिन्हों के निशान, यात्रा
नहीं रुकती किसी के लिए,
आमंत्रण नहीं करता
कोई भी रस्ता,
सुदूर पहाड़ों
में जल
रहे हैं
मायाविनी अरण्य, स्मृति भस्म में रह जाएंगे सभी
अमर लता, कोई ढूंढता रहा रेत की नदी में
विलुप्त जल स्रोत का पता ।
- - शांतनु सान्याल

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