प्रकाश स्तम्भ की तरह अपनी जगह अनंत काल से ठहरा हुआ रहता है एकाकी
प्रणय, लवणीय हवाओं से ख़ुद
का अपक्षरण करता हुआ,
क्रमशः देह प्राण का
अगोचर विखंडन,
चाँदनी रात हो
या मेघाच्छन्न
कालरात्रि,
असमाप्त प्रतीक्षा में अंतर्निहित रहता है एक
अपरिभाषित आनंद, क्षितिज और सैकत
के मध्य कभी नहीं टूटता अदृश्य मेल
बंधन, क्रमशः देह प्राण का अगोचर
विखंडन । अनगिनत नौकाएं
लौट आती हैं अपने
गंतव्यों की ओर,
झिलमिलाते
बंदरगाहों
में रात
भर
चलता रहता है क्रय विक्रय, निःसंग प्रकाश - -
स्तम्भ सुनता रहता लहरों का मौन क्रंदन,
फिर भी वो अनिद्रित आंखों से करता
है नव बिहान का अभिनंदन, क्रमशः
देह प्राण का अगोचर
विखंडन ।
- - शांतनु सान्याल
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