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गुलज़ार, पतझर की हैं
अपनी अलग ही
मजबूरियां,
आते
जाते रहेंगे वो तो यूँ ही बारम्बार।
अँधेरे ओ उजाले के दरमियां
इक लकीर होती है, ज़रा
उम्मीदों से नीम
रौशन ! रहने
दे मुझे
भी उस नूर का तलबगार। न
जाने कौन था वो मजरूह
मुसाफ़िर, खूं -आलूद
क़दमों से गुज़रा
है कल रात,
तभी तो
है राहे बाग़ में यूँ शबनमी बहार।
फिर कोई ख़्वाब ए मरहम
लगा जा, इन सुलगते
आँखों के किनारे,
फिर जीस्त
मेरा
चाहे टूट कर बिखरना, तेरी बाँहों
में मानिंद आबशार।
* *
- शांतनु सान्याल