06 फ़रवरी, 2021

आज़ादशुदा रूह - -

वो कोई फ़रिश्ता न था, इन्सां
का मुकर जाना है लाज़िम,
शाख़ फिर लद जाएंगे,
गुलों का बिखर
जाना है
लाज़िम,
सूरत के साथ सीरत भी हो, -
उतना ही रौशन ज़रूरी
नहीं, जब ढल जाए
उम्र की धूप,
कोने में
ठहर जाना है लाज़िम, यूँ - -
तो ज़िन्दगी भर
भटकता रहा
है वो
अख़लाख़ी शहर में, लम्बी - -
हिजरत के बाद लौट
के अपने घर
जाना है
लाज़िम,
उस
ता'वीज़ के अंदर थे, न जाने
कितने श्लोक और
आयत, नियत
बांध के भी,
कुछ
असूलों से सिहर जाना है - -
लाज़िम, वो ख़ानाबदोश
है कई जन्मों से,
उसे क़ैद
करना
नहीं
आसां, पिंजरे में बंद करते ही
उसका, निःशब्द मर
जाना है लाज़िम।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

19 टिप्‍पणियां:

  1. वो ख़ानाबदोश
    है कई जन्मों से,
    उसे क़ैद
    करना
    नहीं
    आसां, पिंजरे में बंद करते ही
    उसका, निःशब्द मर
    जाना है लाज़िम।
    बहुत खूब !! हृदयस्पर्शी सृजन शांतनु सर! आपकी सृजनशीलता को नमन🙏

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज शनिवार 06 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. हिजरत के बाद लौट के अपने घर जाना है लाज़िम,
    उस ताबीज़ के अंदर थे,
    न जाने कितने श्लोक और आयत,
    नियत बांध के भी,
    कुछ असूलों से सिहर जाना है - -

    बहुत ख़ूब...
    गहरे भाव समाहित हैं इस कविता में,
    साधुवाद 🙏

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  4. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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  5. उस
    ताबीज़ के अंदर थे, न जाने
    कितने श्लोक और
    आयत, नियत
    बांध के भी,

    वाह !!!
    बहुत सुंदर ..🌹🙏🌹

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  6. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,सादर नमन

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  7. आपकी रचनाओं को पढ़ने के बाद निशब्द हो जाना है लाज़िम!!
    आपका लेखन और भावों का विस्तार आश्चर्य से भर जाता है ।हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏

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