पिघलती हुई हिमनद के अंतिम नोक पर
कहीं, इक ठहरा हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो तुम, छू लूँ तुम्हें
बेख़ुदी में सुबह से
पहले, कोई
पहेली !
रेशमी धागों में गुथी, वो अक्स लाजवाब
हो तुम, इक ठहरा हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो तुम। अनगिनत हैं
तुम्हारी बज़्म में सितारों
की चहल क़दमी,
कुछ बुझते
चिराग़
के
लौ भी चाहते हैं पुनर ज़िन्दगी, न जाने
कितने जन्मों के बाद भटकती
रूहों का, पुरसुकूं इन्तख़ाब
हो तुम, इक ठहरा
हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो
तुम।
* *
- - शांतनु सान्याल
25 जुलाई, 2022
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-7-22} को गीत "वीरों की गाथाओं से" (चर्चा अंक 4502)
पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
असंख्य धन्यवाद नमन सह ।
हटाएंखूबसूरत रचना...👏👏👏
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद नमन सह ।
हटाएंवह भाई शान्तनु जी, बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद नमन सह ।
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