वक्षस्थल के गहन में रहती है एक पोषित
पाखी, कभी शब्दों के पंख लिए उड़
जाती है शहर, ग्राम, नदी, सैकत
पार, कभी रहती है बरामदे में
बैठी हुई गुमसुम सी
एकाकी, वक्षस्थल
के गहन में
रहती है
एक पोषित पाखी। उस के घर लौट आने -
तक हिय में रहती है बंदरगाह सी बेचैनी,
विसर्ग, चंद्र बिंदु तैरते रहते हैं
निःश्वास के धरातल में,
शाम घिरते ही कांप
सी उठती है
जीवन
नैया,
ईशान कोण में सहसा उभर आते हैं झंझा - -
बैशाखी, वक्षस्थल के गहन में रहती है
पोषित पाखी। एक अजीब सी
नीरवता होती है चौखट
पार, तुलसी के
नीचे जब
घिर
आता है अंधकार, दुःस्वप्न में कुछ कटे हुए
पंख तैरते से दिखाई देते हैं दूर तक
अपार, हज़ार आशंका लिए मन
में हम करते हैं अंतहीन
इंतज़ार, पथ में कहीं
खो जाती है अश्रु -
मय आँखि,
वक्षस्थल
के गहन
में रहती है एक पोषित पाखी।
* *
- - शांतनु सान्याल
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