दिवसांत के अंतिम सीढ़ी पर खड़ा हूँ, जिस के
नीचे है गहन तिमिर जलराशि, कुछ मोह
के पराग कण देह से हैं चिपके हुए,
कुछ प्रणय गंध बह रही हैं
स्नायु कोशिकाओं से
हो कर वक्षस्थल
तक, सामने
है विस्तृत
निशि
पुष्प अरण्य, इन सत्य पलों में हर एक व्यक्ति
होता है अथाह अभिलाषी, दिवसांत के अंतिम
सीढ़ी पर खड़ा हूँ, जिस के नीचे है गहन
तिमिर जलराशि। वो सभी तर्क
दर्शन हैं सतही हिमखंड से,
टूट जाते हैं अपने
आप ही ख़ुद
के बनाए
गए
वज़नी आदर्श - मापदंड से, डूब चला हूँ मैं बहुत
अंदर किसी अंध मीन की तरह, कोई डस
रहा है देह को अपने तीक्ष्ण नखर से,
ये मधु दंश क्रमशः समाधिस्थ
कर चला है सभी जीवन
के उद्वेग से, यूँ तो
सृष्टि हर पल
करती है
नव
सृजन, सब कुछ रहता है हिय के अंदर, न कोई
अनुताप, न ही कोई गहरी उदासी, दिवसांत
के अंतिम सीढ़ी पर खड़ा हूँ, जिस के
नीचे है गहन तिमिर जलराशि।
* *
- - शांतनु सान्याल
बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (11-06-2023) को "माँ की ममता" (चर्चा अंक-4667) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
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