निर्विकार सा खड़ा रहता है वृक्ष
अपनी जगह, फल्गु तट
का हठ योगी हो जैसे
कोई, संतप्त
फूल
पल्लव झर जाते हैं असमय ही,
पतझर के बहुत पहले, देह
का पिंजर तकता
है खुले आकाश
को प्रत्याशित
दृष्टि से,
जलविहीन है नदी का विस्तृत
पाट, रेत के नीचे कहीं
विलुप्त से हैं
अनुरागी
स्रोत,
इस
पार से उस पार तक, फैली
हुई है शुष्क नदी घाटी,
बिखरे पड़े हैं कुछ
स्मृति अर्घ्य,
कुछ सूखे
फूल -
पत्ते, पतली टहनियां,
नियति के आगे
सभी होते हैं
निरुपाय,
वृक्ष
को कोई शिकायत नहीं है
इस ख़ूबसूरत सृष्टि से,
देह का पिंजर
तकता है
खुले
आकाश को प्रत्याशित दृष्टि
से।
* *
- - शांतनु सान्याल
04 अगस्त, 2021
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