02 अगस्त, 2021

उद्गम - -

सहस्त्र धाराओं में बहती है भूमिगत नदी,
वक्षस्थल के ऊपर, निझूम पड़ी
रहती  है चंद्रप्रभा की चादर,
उठते गिरते निश्वासों में
जागता रहता है मरू
प्यास रात भर,
न जाने
किस
जगह आ कर, डूब जाते हैं जुगनुओं के -
घर, रात ढूंढती है हमें, अज्ञात
हँसुली मोड़ पर, वक्षस्थल
के ऊपर, निझूम पड़ी
रहती है चंद्रप्रभा
की चादर।
दोनों
तट
पर बिखरी होती हैं असंख्य निशिपुष्प
की पंखुड़ियां, रूह तलाशता है उन
पलों में गुमशुदा ख़ुश्बुओं
का ठिकाना, रेतीले
देह पर उभरे पड़े
रहते हैं कुछ
ओस बूंद,
एक
सजल अनुभति भूला देती है हमें कुछ
पलों के लिए मुरझाना, स्पर्श के
मानचित्र पर, हम पा जाते
हैं ज़िन्दगी के भूले
हुए रहगुज़र,
वक्षस्थल
के ऊपर,
निझूम पड़ी रहती है चंद्रप्रभा की चादर।  

* *
- - शांतनु सान्याल  

12 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (3-8-21) को "अहा ये जिंदगी" '(चर्चा अंक- 4145) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह, अद्भुत!... बहुत ही सुन्दर रचना बन्धु सान्याल जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. सहस्त्र धाराओं में बहती है भूमिगत नदी,
    वक्षस्थल के ऊपर, निझूम पड़ी
    रहती है चंद्रप्रभा की चादर,
    उठते गिरते निश्वासों में
    जागता रहता है मरू
    प्यास रात भर...सराहना से परे लाजवाब सृजन।
    मन को छूते भाव एहसास की चादर ओढ़े हुए।
    सादर प्रणाम सर।

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past