परछाई बढ़ चली है, सुबह का मंजर न रहा, हद ए निगाह, अब साहिल ए समंदर न रहा,
ये सच है कि, मुहोब्बत की कोई इंतहा नहीं,
वो जुनून ए इश्क़ अब दिलों के अंदर न रहा,
चेहरों पे हैं चस्पां, मुख़्तलिफ़ रंगों के मुखौटे,
जो सिखाए जीने का फ़न वो क़लन्दर न रहा,
ओढ़ कर ख़ुत्बा ए पैरहन हर मोड़ पे रहज़नी,
दिलों को जीत सके ऐसा कोई सिकंदर न रहा,
अजीब दौर है कि हज़ार ख़ेमों में बंट गए इंसां,
किस किनारे उतरें, घाट पे हक़ गो लंगर न रहा,
- शांतनु सान्याल
किस किनारे उतरें, घाट पे हक़ गो लंगर न रहा,
- शांतनु सान्याल
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