आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे मिलने की वजह, बस इसी एक बिंदु पर
आ कर मैं लौट आता हूँ अपने अंदर,
और खोजता हूँ सूखी नदी का
गुमशुदा स्रोत, वैसे दोनों
किनारे हैं मुद्दतों से
यथावत अपनी
जगह,
आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे
मिलने की वजह । पलटता हूँ मैं आधी रात
आत्मीयता की किताब, सूखे पंखुड़ियों
के संग झर चली हैं शब्दों की नाज़ुक
पत्तियां, अल्बम के पृष्ठों से आज
भी उठ रहे हैं अनाम ख़ुश्बू !
उभर चले हैं धीरे धीरे
देह कोशिकाओं
में अदृश्य
स्पर्श
की उष्णता, ज़िन्दगी उभर रही है सतह दर सतह,
आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे
मिलने की वजह ।
- - शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें