तर्क ए मरासिम के अफ़साने थे बेशुमार,
शबनमी पलकों के सिवाय सब थे बेकार,
इक लकीर जो उफ़क़ में कहीं खो सी गई,
नई सुबह का हर शख़्स होता है तलबगार,
मुसलसल मर के जी उठना ही है ज़िन्दगी,
उभरने की चाह नहीं रोक सकती मंझधार,
ख़्वाब की घड़ी रोक रखती है उम्र के कांटे,
ये सही है कि रुकती नहीं वक़्त की रफ़्तार,
वही शाही रस्ता वही शहर भर की रौशनाई,
लामौजूद हूँ ताहम सज चले हैं मीनाबाज़ार,
कुछ चेहरों को नहीं मिलती वाजिब पहचान,
घने धुंध की वादियों में छुपे होते हैं आबशार,
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 अप्रैल 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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💐 आपका असंख्य आभार ।🙏
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएं💐 आपका असंख्य आभार ।🙏
हटाएंबेहतरीन !
जवाब देंहटाएं💐 आपका असंख्य आभार ।🙏
हटाएंवाह ! खूब रही मीना बाज़ार की सैर ।
जवाब देंहटाएं💐 आपका असंख्य आभार ।🙏
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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