जराजीर्ण देह के साथ उतरती है रात, घाट की सीढ़ियों से सधे पांव, स्थिर नदी की गहराइयों में, बूढ़ा पीपल का पेड़
अंधेरे में तलाशता है एक मुश्त
रौशनी, एकांत की गहन
तन्हाइयों में । न जाने
कितने ही रहस्य
खुलने से
पहले
ही
दफ़न हो जाते हैं सीने के अंदर, सूख जाती
हैं भावनाएं अनाम मरूबेल की तरह,
वक़्त अपना महसूल, वसूल कर
जाता है नक़ली मेघ की
परछाइयों में, बूढ़ा
पीपल का पेड़
अंधेरे में
तलाशता है एक मुश्त रौशनी, एकांत की गहन तन्हाइयों में । फ़र्श में बिखरे पड़े
रहते हैं प्रेम - घृणा के श्वेत - श्याम
मोहरें, कुछ कांच के लिबास,
खण्डित मोह के रेशमी
धागे, उतरे हुए
मुखौटे, और
निर्वस्त्र
संदली काया, निमज्जित सूर्य तब चाहता है रात की क़ैद से मुक्त होना, सुबह हम
तलाशते हैं ज़िन्दगी को रहस्यमयी
कहानियों में, जराजीर्ण देह के
साथ उतरती है रात, घाट
की सीढ़ियों से सधे
पांव, स्थिर नदी
की गहराइयों
में ।
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंसुन्दर भाव सृजन
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंवाह! सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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