26 दिसंबर, 2023

मूकाभिनय

सब कुछ ढक देती है शब्दहीन मुस्कुराहट,
भीगे पलकों में उभर आते हैं असंख्य
जल कण, स्थिर अपनी जगह
हिमांक बिंदु की ओर
अग्रसर, बहुत
कुछ न
चाह
कर भी हलक़ के पार उतारने का नाम ही
है ज़िन्दगी, कोई परछाई रौंद जाती
है वजूद को बार बार बेरहमी के
साथ, फिर भी हम नहीं
मरते, जी उठते हैं
बार बार, सिर्फ़
याद रहती
है दूर जाती हुई ख़ौफ़नाक सरसराहट, सब
कुछ ढक देती है शब्दहीन मुस्कुराहट।
दरअसल हम ज़रूरत से अधिक
प्रत्याशा लिए बैठे होते हैं
जबकि वक़्त की तेज़
रफ़्तार में छूट
जाते हैं
सभी
परिचित चेहरे, जनशून्य स्टेशन में तब - -
हमारे सिवा कोई नहीं होता, कोहरे
में ढके होते हैं जंगल - पहाड़,
नदी झरने, हदे नज़र
गुम होती हुईं रेल
की बेजान
पटरियां,
फिर
भी हम लौट आते हैं सुबह सवेरे उसी जगह
जहाँ मद्धम ही सही, लेकिन आती है
जीने की आहट, सब कुछ ढक
देती है शब्दहीन
मुस्कुराहट।
* *
- - शांतनु सान्याल

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