24 अप्रैल, 2023

अशेष रात्रि कथा - -

मृग तृष्णा में मुब्तिला, यहां हर एक चेहरा है,
अशेष है अंदर रात, कहने को बाहर सवेरा है,

अधूरापन ही बढ़ाता है,  जीवन को दम ब दम,
सतह है निःशब्द लेकिन, अंदर बहोत गहरा है,

किसी तरह दौड़ के पहुंचा, किंतु रेल न मिली,
सही भी है, कौन भला, किस के लिए ठहरा है,

कुछ ख़्वाब के कतरन झूलते हैं सूखे दरख़्त पे,
रात मर चुकी कमरे के अंदर अंधेरे का पहरा है,

बिखरे पड़े हैं मुखौटे पंखविहीन पतंगों की तरह,
अन्तःकरण के महानगर को, सम्मोहन ने घेरा है,
* *
- - शांतनु सान्याल

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