गीली काठ से धुआँ उठता रहा, देह है अध जला,
वही उधेड़ बुन सुबह शाम का यकसां सिलसिला,
दस्तकों के भीड़ में, ज़िंदगी खोजती है अपनापन,
जिसे ढूंढा किए उम्र भर, वो शख्स कभी न मिला,
कितने ही हिस्सों में ख़ुद को तक़सीम कर देखा है,
मेरा साया, ख़ुद मुझ से बारहा ग़ैरमुत्मइन निकला,
जज़्बात के फंदों से निकलना, यूं आसां नहीं होता,
सभी रिश्ते हैं सतही, ज़ेर ए ज़मीं रहता है फ़ासला,
रात को गुज़रना है, रोज़ की तरह यूँ ही बरहना पा,
बुझता नहीं फिर भी उफ़क़ पार चिराग़ ए मरहला,
* *
- - शांतनु सान्याल
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