जिगर की आग और ये जलता हुआ आसमां -
ज़िन्दगी ठहरी रही देर तक बारिश की चाह में,
वो बच्चा रोता रहा बीच सड़क, भीड़ में कहीं -
बचपन बिखरता रहा, एक वारिस की चाह में,
गुलमोहर खिले, यहीं पे कहीं ये ख़बर ही नहीं -
हाथ बढे नहीं, सर झुके थे आशीष की चाह में,
कौन गाता है रात ढले, तन्हां, दर्द भरी ग़ज़ल -
पत्थर न पिघले, उम्र गुज़री तपिश की चाह में,
न छू यूँ बार बार इस मजरुहे ज़िन्दगी को तू -
चला हूँ टूटे कांच पे, इक बख्शीश की चाह में,
देखा है, बहुत क़रीब से बहार को मुंह फेरते -
हूँ अब तक नादां, किसी परवरिश की चाह में,
- - शांतनु सान्याल
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