मद्धम ही सही जल तरंग सा
है ज़िन्दगी का साज़,
हज़ार ग़म लिए
सीने में, न
बदले
जीने का अंदाज़,
ख़ुदा जाने क्यूं घेर लेते हैं तुम्हें,
उदासियों के साए, मुहोब्बत
के सफ़र में, हरेक
लम्हा है नया
आग़ाज़,
गुल खिले न खिले, मुख़ातिब
रहें दिल ए गुलज़ार,
आंधियों में भी
नहीं रूकती,
तितलियों
के परवाज़,
काश, हम समझ पाते, ख़ामोश
पत्थरों की ज़बान, दिल की
गहराइयों से पुकारें, लौट
आएगी आवाज़,
बहते समय के स्रोत होते हैं बहोत
ही अप्रत्याशित, दो काँटों के
दरमियां झूलता सा
रहता है घड़ीसाज़,
* *
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 02 एप्रिल 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपका असीम आभार आदरणीय ।
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०२-०४-२०२३) को 'काश, हम समझ पाते, ख़ामोश पत्थरों की ज़बान'(चर्चा अंक-४६५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंदो काँटों के बीच ज़िंदगियाँ निकल जाती हैं...घड़ीसाज के माध्यम से बात कहने का अद्भुत अंदाज़...बहुत ख़ूब...👏👏👏
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंअति सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंआदरणीय शांतनु सान्याल जी ! प्रणाम !
जवाब देंहटाएंघडिया जाने कब की जेबी हो गयी और फैलते हुवे महंगे रोडसाइड से घड़ीसाज भी कब के लुप्तप्राय: हो गए ! परिवेश से एक विद्या संस्कृति के लोप को रेखांकित कर , उस महाकाल रूपी घड़ीसाज को ध्येय कर लिखी रचना के लिए बहुत अभिनन्दन !
जय माता दी ! जय श्री राम !
आपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंअत्यंत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीय ।
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