इक टीस सी उभरती है कोयल के कुहुक
में, चंद्रबिंदु की तरह पड़े रहते हैं
सजल भावनाएं पलकों के
बीच में, झर चले हैं
किंशुक कुसुम,
उदास से
निःस्तब्ध खड़े हैं मधूक वन, लौटने को
है मधुमास, ऋतु चक्र का है अपना
ही पृथक विधान, ज़्यादा देर
तक नहीं रहता शून्य
स्थान, कोई न
कोई भर
जाता
है प्राण वायु शिथिल निःश्वास में, अदृश्य
माधुर्य छुपा रहता है असमय की
सींच में, चंद्रबिंदु की तरह पड़े
रहते हैं सजल भावनाएं
पलकों के बीच में |
* *
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 13 अप्रैल 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंकोमल भावनाओं से सजी सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
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