मंज़िल का पता मालूम नहीं
दिल में कुछ आरज़ू
रहने दें, निगाहों
से लेन देन
किया
जाए बा लफ्ज़ गुफ़्तगू रहने दें,
हासिए से निकल कर कभी
तेरे ग़ज़ल का उन्वान
तो बनूं, भीगी
पलकों के
किनारे,
किनारे ख़्वाबीदा जुस्तजू रहने दें,
आइने की अपनी है मजबूरी सच
को ज़ाहिर ए आम करना,
ताहम अक्स मेरा जैसा
भी हो, अपने दिल
में हूबहू
रहने
दें,
मसनूअ इंसानी, अतर की उमर
होती है बहोत ही मुख़्तसर,
रूह की बेइंतहा गहराइयों
में, ख़ालिस इश्क़ की
ख़ुश्बू रहने
दें,
ज़रा सी देर अपने रूबरू रहने दें ।
* *
- - शांतनु सान्याल
30 मार्च, 2023
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वाह ❤️
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शुक्रवार 31 मार्च 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीय ।
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