18 मार्च, 2023

मर्क़ज़ ए जां - -

एक नुक़्ता है ज़िन्दगी, छू लो तुम तो दायरा बन जाए,
तिलिस्म ए अल्फ़ाज़ से निकल कर, मुहावरा बन जाए,

मर्क़ज़ ए जीस्त हो, मुतालबा है आस्मां से कहीं ज़्यादा,
न खिंचिए क़रीब इतना कि वजूद उथला किनारा बन जाए,

चाँदनी रात का नशा है, तुम्हारे निगाह में मेरी मुहोब्बत,
रात ढलते ही न कहीं, ये टूटा हुआ इक सितारा बन जाए,

उभरते हैं मेरी आँखों में, अक्सर स्याह अब्र के गहरे साए,
छू लो अपनी पलकों से, कि जी उठने का सहारा बन जाए,

इक ही ज़ीस्त में न जाने, कितनी सज़ाओं की है गुंजाईश,
जिस्म ओ जां के रहते कहीं, दर्द ए आह बंजारा बन जाए,
* *
- - शांतनु सान्याल

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