पैतृक सीढ़ी के बग़ैर, छत पे चढ़ना आसान नहीं होता,
हर शख़्स के माथे पे, कुलीनता का निशान नहीं होता,
उस आदमी को चलना है ख़ुद के दम पे बहुत दूर तक,
हर किसी के नंगे पांव तले मख़मली ढलान नहीं होता,
अंदर का पौरुष कहता है कि, अन्याय का प्रतिवाद हो,
विद्रोहियों के माथे पर किंतु खुला आसमान नहीं होता,
धृतराष्ट्र की सभा में, अंध दर्शकों का होना लाज़िम है,
फिर भी अंधत्व का युग, हमेशा चलायमान नहीं होता,
सिंहासन का प्रभाव, बढ़ा जाता है दूर तक निस्तब्धता,
मौन सही, समय का दर्पण, लेकिन बेज़ुबान नहीं होता,
गिरना - संभलना तो हैं, ज़िन्दगी के दो सहजात पहलू,
दोहन नहीं थमेगा जब तक आदमी सावधान नहीं होता,
* *
- - शांतनु सान्याल
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (१९-०३-२०२३) को 'वृक्ष सब छोटे-बड़े नव पल्लवों को पा गये'(चर्चा अंक -४६४८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका असीम आभार आदरणीया ।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार २० मार्च २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपका असीम आभार आदरणीया ।
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