निःशब्द सन्यासी की तरह, उड़ते जीर्ण
पत्ते के संग, इक दिन अचानक
निरुद्देश्य निकल जाना होता
है, मध्य रात्रि में जब
सड़कें नदियों की
तरह दिखती हैं
बस, अदृश्य
लहरों
के संग बहुत दूर निकल जाना होता है,
द्वीप रुपी घर पड़ा रहता है अपनी
जगह, यशोधरा के स्वप्नों में
कहीं रह जाते हैं स्मृति के
शीशमहल, बिखरे
रहते हैं फ़र्श
पर नेह के
मोती,
निर्बंध होता है उम्र भर का सौगंध, न
कोई प्रतीक्षा न कोई पुनर्मिलन की
आस, इस इतिकथा का नायक
है आम आदमी, कोई गौतम
बुद्ध नहीं, हमेशा के लिए
उसे सब कुछ छोड़
कर अनजान
ग्रह में चले
जाना
होता है, चुपचाप, पदचिन्ह विहीन -
निर्विकार !
* *
- - शांतनु सान्याल
22 मार्च, 2023
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 23 मार्च 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
आपका असीम आभार आदरणीया ।
हटाएंवाह! बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआपका असीम आभार आदरणीया ।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 23 मार्च 2023 को 'जिसने दी शिक्षा अधूरी तुम्हें' (चर्चा अंक 4649) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
आपका असीम आभार आदरणीया ।
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