रंगीन देह की थी अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते ही लहरों ने किया
आत्म समर्पण, वक़्त के संग
उतर जाएंगे सभी कृत्रिम
रंग, रह जाएंगे सिर्फ
अदृश्य स्पर्श के
चिन्ह, तीन
खण्डों
में
है विभाजित ये जीवन, धूप, शिखा और
धुआं, विलुप्त प्रतिबिम्ब को खोजता
प्रणयी दर्पण, रंगीन देह की थी
अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते
ही लहरों ने
किया
आत्म समर्पण । निःस्तब्ध सा है मुख्य
द्वार का सांकल, दस्तकों का हो
चुका समापन, मुहाने पर आ
हो जाती है विश्रृंखल नदी
भी परिश्रांत, हृदय वेग
है मंथर,पलकों पर
ठहरे हुए हैं कुछ
ओस कण,
उष्मित
अधरों पर हैं जागृत कुछ अनबुझ तृष्णा,
अंतरतम में है एक प्रदेश अशांत, फिर
भी विनिमय विधि रूकती नहीं,
हर एक का है अपना ही
तक़ाज़ा, हर एक की
अपनी उगाही,
मुश्किल है
हिय का
तर्पण,
रंगीन देह की थी अपनी अलग सीमाएं,
कोलाहल थमते ही लहरों ने किया
आत्म समर्पण ।
* *
- - शांतनु सान्याल
08 मार्च, 2023
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 09 मार्च 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९ -०३-२०२३) को 'माँ बच्चों का बसंत'(चर्चा-अंक -४६४५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएं