अक्षय वट है जिजीविषा, जन्म जड़ कभी
अपनी भूमि छोड़ती नहीं, कटी हुई
टहनियों के बीच, मृत प्रेम जी
उठते हैं कोमल पत्तियों
की तरह, निःशब्द
हवाओं के संग
वो बतियाते
हैं रात
भर,
ठूंठ भी अपने सीने में रखता है अंकुर से
वृक्ष बनने तक का इतिहास । चाहे
जितनी बार, समय के स्लेट
से जीवन के वर्णमाला
पोंछ दिए जाएं, एक
हल्का सा चिन्ह
हर एक बार
छूट ही
जाता है, स्मृतियां, मृत नदी की तरह हर
हाल में भूमिगत जल का स्रोत खोज
लेती हैं, फिर उभर आते हैं मिटे
हुए अक्षर, अंकुरित होते
हैं गहरे दफ़न से
जल बिंदु,
पुनः
खिलते हैं दूर दूर तक रक्तिम पलाश, ठूंठ
भी अपने सीने में रखता है अंकुर से
वृक्ष बनने तक का
इतिहास ।
* *
- - शांतनु सान्याल
03 मार्च, 2023
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