14 सितंबर, 2021

अध खुला दरवाज़ा - -

बहुत भुरभुरे से थे वो सभी मोह के
रिश्ते, ज़रा सी ठेस क्या लगी
हवाओं में बिखर गए,
ख़ुद से निकल कर
मैं अक्सर ख़ुद
को ढूंढता हूँ,
शहर भी
वही
है, लोग भी जाने पहचाने, आख़िर
मेरे चाहने वाले, जाने किधर
गए, ज़रा सी ठेस क्या
लगी हवाओं में
बिखर गए |
सड़क
भी
वही है, गली चौबारे भी हैं अपनी
जगह यथावत, बस बिजली
के तार हैं ग़ायब, फिर
भी रौशनी में डूबा
हुआ है ये
मायावी
शहर,
हर
एक अध खुले दरवाज़ों से झांकते
हैं जैसे हैरान सी आँखे, ले कर
अपना पहचान पत्र हम
जिधर गए, बहुत
भुरभुरे से थे
वो सभी
मोह
के रिश्ते, ज़रा सी ठेस क्या लगी
हवाओं में बिखर गए |
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

 

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