कई बार रास्ता भूल कर भी हम,
आख़िरकार लौट आते हैं उसी
जगह, और लौट आती
है हमारे संग, देह
से लिपटी हुई
धूप छाँव,
कई
बार न चाह कर भी हम जीते हैं
किसी और के लिए, इस
सोच में कि हमारे
खोने से कहीं
उजड़ न
जाए
किसी और का सपनों का गांव, - -
लौट आती है हमारे संग, देह
से लिपटी हुई धूप छाँव।
कई बार हम बिन
चश्मे के यूँ
ही देखना
चाहते
हैं नज़दीक के चेहरे, ताकि लोगों -
का नाटकीय अपनापन नज़र
न आए, अजीब सा मोह
होता है ज़िन्दगी में,
पलकों में होते
हैं घनीभूत
मेघ, और
हम
चाहते हैं कि टूट कर बूंद कहीं - -
चेहरे पर बिखर न जाए,
हम जान बूझ कर
हार जाते हैं
हर बार
वो
ख़ुश होते हैं बाज़ीगर की तरह - -
खेल कर बच्चों वाला दांव,
लौट आती है हमारे
संग, देह से
लिपटी
हुई
धूप छाँव।
* *
- - शांतनु सान्याल
21 सितंबर, 2021
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वाह! बहुत सुंदर!!!
जवाब देंहटाएंसच है ! कई बार परिस्थितियों को साधने के लिए पीछे हट जाना पड़ जाता है
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंइस कविता के अक्षर-अक्षर से मैं एक अवर्णनीय संबंध का अनुभव कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएं