सजल पलकों के किनारे, ये कैसा
शहर बसा गया कोई। सरहद
पार करने की तमन्ना
निकली बहोत ही
महलक,
सुबह से पहले, चारों तरफ़ कँटीले
तार, लगा गया कोई। उमर
इन ख़्वाबों की कभी
लम्बी होती
नहीं
कांच की तरह, रेशमी पंख ओढ़ने -
से पहले जिस्म ओ जां जगा
गया कोई। ये सर ज़मीन
ही मेरा है, पहला और
आख़री पनाहगाह,
आईने की
तरह
बेबाक, मयार ए हैसियत बता - -
गया कोई। मुझे अपने
तजुर्बा ए ज़िन्दगी
पे बेहद नाज़
था लेकिन -
चंद
बूंदों में सिमटी हुई, दुनिया की
सच्चाई दिखा गया कोई।
* *
- शांतनु सान्याल
शहर बसा गया कोई। सरहद
पार करने की तमन्ना
निकली बहोत ही
महलक,
सुबह से पहले, चारों तरफ़ कँटीले
तार, लगा गया कोई। उमर
इन ख़्वाबों की कभी
लम्बी होती
नहीं
कांच की तरह, रेशमी पंख ओढ़ने -
से पहले जिस्म ओ जां जगा
गया कोई। ये सर ज़मीन
ही मेरा है, पहला और
आख़री पनाहगाह,
आईने की
तरह
बेबाक, मयार ए हैसियत बता - -
गया कोई। मुझे अपने
तजुर्बा ए ज़िन्दगी
पे बेहद नाज़
था लेकिन -
चंद
बूंदों में सिमटी हुई, दुनिया की
सच्चाई दिखा गया कोई।
* *
- शांतनु सान्याल
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