समयानुसार हर चीज़ होते जाती है आवरणविहीन,
वयोवृद्ध वृक्ष, जीर्ण पत्तों का करते हैं परित्याग,
प्रकृत सत्य है परिवर्तन, ऋतु हो या अहिराज,
जन्म - मृत्यु के इस चक्र में एक रेखा
रहती है बहुत ही नाज़ुक सी
महीन, समयानुसार हर
चीज़ होते जाती है
आवरणविहीन।
कमर बंध
में गुथे
रहते हैं मोह के कानी कौड़ी, निर्वस्त्र देह से लिपटे
रहते हैं अतृप्त, अदृश्य अग्नि कण, हृदय कोण
में छुपे रहते हैं अनगिनत अभिलाषों के
अंधकार, अतिरिक्त चाह के लिए
अंतरतम करता है हाहाकार,
तमाम रात्रि अविराम
यात्रा, फिर भी
सुबह का
नहीं मिलता
कोई
सुराग, सब कुछ मिलने के बाद भी -
शून्यता करती है विराज, दरअसल हम
ख़ुद से ख़ुद को नहीं कर पाते हैं
आज़ाद, अंतर्यात्रा रहती है
यथावत अंतहीन,
समयानुसार
हर चीज़
होते
जाती है आवरणविहीन - -
- शांतनु सान्याल
कोई
सुराग, सब कुछ मिलने के बाद भी -
शून्यता करती है विराज, दरअसल हम
ख़ुद से ख़ुद को नहीं कर पाते हैं
आज़ाद, अंतर्यात्रा रहती है
यथावत अंतहीन,
समयानुसार
हर चीज़
होते
जाती है आवरणविहीन - -
- शांतनु सान्याल
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