वही चिर परिचित द्युतसभा, वीभत्स अट्टहास,
पश्चिमान्त से ले कर उत्तर पूर्वान्त,
अंधत्व रहता है यहाँ बारह मास,
भीड़ के चेहरे भिन्न रंगों में
हैं सरोबार, कभी गेरुआ
कभी तीन रंगों में
है वो एकाकार,
भीष्म हो
या धृतराष्ट्र, हर युग में द्रौपदी का ही होता है - -
निर्मम शिकार, अंधत्व और नीरवता के
मध्य मेरुदंड विहीन समाज में
अथक जीने का प्रयास,
वही चिर परिचित
द्युतसभा,
वीभत्स
अट्टहास। इस साम्राज्य की अपनी अलग ही है
विशेषता, कहने को सारा विश्व है अपना
लेकिन पांवों तले कोई ज़मीं नहीं,
दीवारों पर लिखे उपदेश
पलस्तर के संग
उतर गए,
आईना
दूसरों को दिखाने वाले ख़ुद अपना अक्स भूल
गए, वक़्त के साथ विशाल बरगद की
टहनियों से सभी पत्ते निःशब्द
झर गए, बाक़ी रहा सिर्फ़
दोषारोपण का
बकवास,
वही चिर परिचित द्युतसभा, वीभत्स अट्टहास।
- शांतनु सान्याल
बेहद अफ़सोसजनक
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंमार्मिक, सामयिक और सार्थक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंधृतराष्ट्र पूरी तरह अंधे नहीं हैं, उनको पड़ौसी राज्यों की द्रौपदियों का अपमान-शोषण स्पष्ट दिखाई देता है.
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
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