न ज़मीं हद ए नज़र, न दूर तक
कोई आसमां, न कहीं लहरों
का ही निशां, ये कौन
उभरा है मेरी
बंजर
निगाहों से यकायक, ये कौन है
जो मुझे कर चला है, मुझ
से ही जुदा, ये कैसा
अहसास है
जो -
ले जाना चाहे मुझे, बा हमराह -
न जाने किन मंज़िलों की
ओर, कि छूट चले
हैं तमाम
चेहरे
आश्ना ओ ग़ैर, इक अजीब सी
तासीर ए इतराफ़ है मेरे
इर्दगिर्द, ये मसीहाई
कोई लम्स
का है
असर या उसकी मुहोब्बत में - -
ज़िन्दगी ने पा लिया
आख़री किनारा !
* *
- शांतनु सान्याल
कोई आसमां, न कहीं लहरों
का ही निशां, ये कौन
उभरा है मेरी
बंजर
निगाहों से यकायक, ये कौन है
जो मुझे कर चला है, मुझ
से ही जुदा, ये कैसा
अहसास है
जो -
ले जाना चाहे मुझे, बा हमराह -
न जाने किन मंज़िलों की
ओर, कि छूट चले
हैं तमाम
चेहरे
आश्ना ओ ग़ैर, इक अजीब सी
तासीर ए इतराफ़ है मेरे
इर्दगिर्द, ये मसीहाई
कोई लम्स
का है
असर या उसकी मुहोब्बत में - -
ज़िन्दगी ने पा लिया
आख़री किनारा !
* *
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें