मरने मिटने की क़सम खाओ,
सरीसृप से विहग बन न
पाओगे, ये अंतर्मन
की बात है,
रंगीन शल्कों से चाहे जितना भी ढक लो तन
अपना, वो नैसर्गिक आभा ला न
पाओगे, छद्म आवरण से
मुक्ति न पा सकोगे,
मुझे पाने की तुम्हारी चाहतें रुक जाती हैं
मांस पेशियों, रक्त कणिकाओं तक
आ कर, वृष्टि छाया के उस पार
बहती है शुष्क अतृप्त नदी
कोई, ह्रदय तंतुओं में
बसते हैं,
पलाश वन लिए शताब्दियों के प्रज्वलन
तुम चाहे अनचाहे अनंत मेघ
बन बरस न पाओगे, थक
हार के एक दिन, प्रति -
ध्वनि के पथ हो
निशब्द, सुदूर शून्य में लौट जाओगे, चाह कर
मुझे अपना न पाओगे, तृषित थे यूँ भी
युगों युगों से, मृगतृष्णा में पुनः
खो जाओगे, लाख कोशिश
करो लेकिन मुझ से न
कभी मिल
पाओगे।
-- शांतनु सान्याल
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