फिर लौट आएंगे ठीक उसी जगह, जहां शारदीय आकाश गले
मिलता है सफ़ेद कांस
फूलों से, कगार
से दूर धीरे
धीरे
नदी खिसकती जाती है छोड़ कर
रेत का अतीत, देह की गहनता
में कहीं आज भी धंसा हुआ
है लंगर शूल, विलुप्त
जंज़ीर कदाचित
पा जाए दूर
अटके
हुए
नाव को, फिर लौट आएंगे उसी
जगह एक दिन जहां घाट की
आख़री सीढ़ी पर तुमने
कहा था अलविदा,
अंतर्यात्रा का
कोई अंत
नहीं
बस पोशाक का है अनवरत बदलाव,
तुम प्रतीक्षा करो या न करो, लेकिन
तै है कहीं किसी अज्ञात मोड़ पर
हम ज़रूर मिल जाएंगे किसी
और रूप में, किसी और
योनि में, कदाचित
कुहासे भरे
बिहान
में सुदूर उड़ते हुए सारस बन कर या
आंगन में बिखरे हुए पारिजात
के मध्य विलीन ओस बूंद
बन कर, लेकिन
मिलना तो
निश्चित
है ।
- शांतनु सान्याल
बहुत ही सुन्दर और हृदय स्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएं'अंतर्यात्रा का कोई अंत नहीं', वाक़ई अंतहीन है यह यात्रा !
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंवाह! बेहतरीन सृजन!
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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