23 नवंबर, 2023

विदूषक की तरह - -

किसी अंधकूप की तरह, सीने में सुबह की धूप छुपा रखी थी,
प्रेम था या अथाह अंधकार नम आँखों में दीप जला रखी थी,

अदृश्य फैली हुई बाहें थीं, या झूलती मोह की जर्जर सीढ़ियां,
जीवन - मरण के मध्य कुछ ही पलों की दूरत्व बना रखी थी,

मद्धम रौशनी ऐसी जिसे परिभाषित करना भी साध्य के परे था,
सत्य मिथ्या के रंगों को उस ने, इस तरह एकत्र मिला रखी थी,

आवेश के वो क्षण, जो दिग्भ्रमित कर जाएं मायामृग की तरह,
शिकारी ने सूखे पत्तों के नीचे, जानलेवा ज़ंजीर बिछा रखी थी,

किसी और के हाथों है डोर, नियति को कोसती रही कटी पतंग,
ज़हर बुझे तीरों के मध्य, इक बूंद जीने की चाह मिला रखी थी,

ज़िन्दगी भर यूँ तो चलता रहा, जीत हार का अंतहीन सिलसिला,
विदूषक की तरह, हम ने भी चेहरे पर कुछ जलरंग लगा रखी थी।
- शांतनु सान्याल
 

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